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710203 - Lecture CC Madhya 06.124 Hindi - Gorakhpur

His Divine Grace
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada



710203CC-GORAKHPUR - February 3, 1971 - 42:08 Minutes



Devotee: The last discussion was between Śrīla Prabhupāda and Hanuman Prasad Poddar invited at Gītā Press āśrama . . . (indistinct) . . . there was also a kīrtana and also some recorded fragments of the conversation. The next recording is the same evening, 3rd of January (sic) 1971. Śrīla Prabhupāda . . . (indistinct) . . . and gathering of university students in this Gorakhpur community, after ārati Caitanya-caritāmṛta.

Prabhupāda: (Microphone interference) That will not stay. . . . (indistinct) . . . and give one glass of water . . . (break)

. . .unmīlitaṁ yena tasmai śrī-gurave-namaḥ

("I offer my respectful obeisances unto my spiritual master, who with the torchlight of knowledge has opened my eyes, which were blinded by the darkness of ignorance.")

śrī-caitanya-mano-'bhīṣṭaṁ sthāpitaṁ yena bhū-tale
svayaṁ rūpaḥ kadā mahyaṁ dadāti sva-padāntikam

("When will Śrīla Rūpa Gosvāmī Prabhupāda, who has established within this material world the mission to fulfill the desire of Lord Caitanya, give me shelter under his lotus feet?")

vande 'haṁ śrī-guroḥ śrī-yuta-pada-kamalaṁ śrī-gurūn vaiṣṇavāṁś ca
śrī-rūpaṁ sāgrajātaṁ saha-gaṇa-raghunāthānvitaṁ taṁ sa-jīvam
sādvaitaṁ sāvadhūtaṁ parijana-sahitaṁ kṛṣṇa-caitanya-devaṁ
śrī-rādhā-kṛṣṇa-pādān saha-gaṇa-lalitā-śrī-viśākhānvitāṁś ca

("I offer my respectful obeisances unto the lotus feet of my spiritual master and of all the other preceptors on the path of devotional service. I offer my respectful obeisances unto all the Vaiṣṇavas and unto the six Gosvāmīs, including Śrīla Rūpa Gosvāmī, Śrīla Sanātana Gosvāmī, Raghunātha dāsa Gosvāmī, Jīva Gosvāmī and their associates. I offer my respectful obeisances unto Śrī Advaita Ācārya Prabhu, Śrī Nityānanda Prabhu, Śrī Caitanya Mahāprabhu and all His devotees, headed by Śrīvāsa Ṭhākura. I then offer my respectful obeisances unto the lotus feet of Lord Kṛṣṇa, Śrīmatī Rādhārāṇī and all the gopīs, headed by Lalitā and Viśākhā.")

nama oṁ viṣṇu-pādāya kṛṣṇa-preṣṭhāya bhū-tale
śrīmate bhaktisiddhānta-sarasvatīti nāmine

("I offer my respectful obeisances unto His Divine Grace Bhaktisiddhānta Sarasvatī, who is very dear to Lord Kṛṣṇa, having taken shelter at His lotus feet.")

he kṛṣṇa karuṇā-sindho dīna-bandho jagat-pate
gopeśa gopikā-kānta rādhā-kānta namo 'stu te

("O my dear Kṛṣṇa, ocean of mercy, You are the friend of the distressed and the source of creation. You are the master of the cowherd men and the lover of the gopīs, especially Rādhārāṇī. I offer my respectful obeisances unto You.")

tapta-kāñcana-gaurāṅgi rādhe vṛndāvaneśvari
vṛṣabhānu-sute devi praṇamāmi hari-priye

("I offer my respects to Rādhārāṇī, whose bodily complexion is like molten gold and who is the Queen of Vṛndāvana. You are the daughter of King Vṛṣabhānu, and You are very dear to Lord Kṛṣṇa.")

vāñchā-kalpatarubhyaś ca kṛpā-sindhubhya eva ca
patitānāṁ pāvanebhyo vaiṣṇavebhyo namo namaḥ

("I offer my respectful obeisances unto all the Vaiṣṇava devotees of the Lord. They can fulfill the desires of everyone, just like desire trees, and they are full of compassion for the fallen souls.")

So where is Dr. Rao?

Devotee: Dr. Rao?

Prabhupāda: I have to speak in English or Hindi? If I speak in . . .

Hanumān: Hindi would be much better.

Prabhupāda: Eh?

Hanumān: Hindi would be much better because a greater number of people will be able to follow.

Prabhupāda: Yes, but these, my students.

Hanumān: . . . (indistinct) . . . personalities..

Prabhupāda: Eh?

Hanumān: (Hindi)

Prabhupāda: (Hindi) (laughs)

Hanumān: (Hindi)

Prabhupāda: Ah. (Hindi conversation)

(3.30)

aṣṭama-divase tāṅre puche sārvabhauma
sāta dina kara tumi vedānta śravaṇa
(CC Madhya 6.124)

(Hindi & ślokas)

(15.01)

nirmala— very clear. I can understand the meaning of the sūtras very clearly without any doubt. (CC Madhya 6.130) (Hindi &. ślokas)

(41.57)

Thank you very much. Hare Kṛṣṇa.

Devotee: Kīrtana?

Prabhupāda: Yes a little kīrtana. (Hindi) (break) (end).


HINDI TRANSLATION

भक्त: आखिरी बातचीत श्रील प्रभुपाद और हनुमान प्रसाद पोद्दार के बीच हुई थी, जिन्हें गीता प्रेस आश्रम में बुलाया गया थ। एक कीर्तन भी हुआ और बातचीत के कुछ रिकॉर्ड किए गए हिस्से भी थे। अगली रिकॉर्डिंग उसी शाम, 3 जनवरी 1971 की है। श्रील प्रभुपाद और इस गोरखपुर कम्युनिटी में यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स का सभा, चैतन्य-चरितामृत आरती के बाद।

प्रभुपाद: (माइक्रोफ़ोन में दिक्कत) वह नहीं रहेगा, और एक गिलास पानी दो (ब्रेक)

चक्षुरून उन्मीलितां येन तस्मै श्रीगुरवे-नमः

("मैं अपने आध्यात्मिक गुरु को आदरपूर्वक प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने ज्ञान की मशाल की रोशनी से मेरी आँखें खोली हैं, जो अज्ञान के अंधेरे से अंधी हो गई थीं।")

श्री-चैतन्य-मनो-भिष्टं स्थापितं येन भू-तले
स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्व-पदान्तिकम्

("श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद, जिन्होंने इस भौतिक दुनिया में भगवान चैतन्य की इच्छा पूरी करने का मिशन स्थापित किया है, मुझे अपने कमल चरणों में कब शरण देंगे?")

वन्दे हं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरुन वैष्णव च
श्रीरूपं सागरजातं सहगण रघुनाथनवितं तं सजीवम्
साद्वैतं सावधूतं परिजनसहितं कृष्णचैतन्यदेवम्
श्रीराधाकृष्णपादान सहगण ललिताश्रीविशाखानवितां च

("मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ मेरे आध्यात्मिक गुरु और भक्ति मार्ग के सभी दूसरे गुरुओं के चरणों में। मैं सभी वैष्णवों और छह गोस्वामी, जिनमें श्रील रूप गोस्वामी, श्रील सनातन गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, जीव गोस्वामी और उनके साथी शामिल हैं, को अपना आदरपूर्वक प्रणाम करता हूँ। मैं श्री अद्वैत आचार्य प्रभु, श्री नित्यानंद प्रभु, श्री चैतन्य महाप्रभु और उनके सभी भक्तों, जिनमें श्रीवास ठाकुर भी शामिल हैं, को अपना आदरपूर्वक प्रणाम करता हूँ। फिर मैं भगवान के चरणों में अपना आदरपूर्वक प्रणाम करता हूँ। कृष्ण, श्रीमती राधारानी और सभी गोपियाँ, जिनमें ललिता और विशाखा भी शामिल हैं।")

नम ओम विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्टाय भू-तले
श्रीमते भक्तिसिद्धांत-सरस्वतीति नामिने

("मैं उनकी दिव्य कृपा भक्तिसिद्धांत सरस्वती को अपना आदरपूर्वक प्रणाम करता हूँ, जो भगवान कृष्ण को बहुत प्रिय हैं, और जिन्होंने उनके कमल चरणों में शरण ली है।")

हे कृष्ण करुणा-सिंधो दीन-बंधो जगत-पते
गोपेश गोपिका-कांता राधा-कांता नमोऽस्तु ते

("हे मेरे प्यारे कृष्ण, दया के सागर, आप दुखी लोगों के दोस्त और सृष्टि के स्रोत हैं। आप ग्वालों के स्वामी और गोपियों, खासकर राधारानी के प्रेमी हैं। मैं आपको सादर प्रणाम करता हूँ।")

तप्त-कांचन-गौरांगी राधे वृन्दावनेश्वरी
वृषभानु-सुते देवी प्रणमामि हरि-प्रिये

("मैं राधारानी को सादर प्रणाम करता हूँ, जिनका शरीर पिघले हुए सोने जैसा है और जो रानी हैं वृन्दावन। आप राजा वृषभानु की बेटी हैं, और आप भगवान कृष्ण को बहुत प्रिय हैं।")

वांछा-कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिंधुभ्य एव च
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः

("मैं भगवान के सभी वैष्णव भक्तों को आदरपूर्वक प्रणाम करता हूँ। वे कल्पवृक्षों की तरह सभी की इच्छाएँ पूरी कर सकते हैं, और वे गिरी हुई आत्माओं के लिए दया से भरे हुए हैं।") प्रभुपाद: तो डॉ. राव कहाँ हैं?

भक्त: डॉ. राव?

प्रभुपाद: मुझे इंग्लिश में बोलना है या हिंदी में? अगर मैं . . . में बोलूँ तो

हनुमान: हिंदी ज़्यादा बेहतर होगी।

प्रभुपाद: एह?

हनुमान: हिंदी ज़्यादा बेहतर होगी क्योंकि ज़्यादा लोग समझ पाएँगे।

प्रभुपाद: हाँ, लेकिन ये, मेरे स्टूडेंट्स, ये बिचारे समझ नहीं पाएंगे।

हनुमान: . . . (अस्पष्ट) . . . पर्सनैलिटीज़..

प्रभुपाद: एह?

हनुमान: (हिंदी)

प्रभुपाद: (हिंदी) (हँसते हुए)

हनुमान: उसका ट्रांसलेशन हो जायेगा।

प्रभुपाद: हिंदी हम ज्यादा बोल नहीं सकते। तो क्या करें।

अष्टम-दिवसे ताँरे पूछे सार्वभौम साता दिन करा तुमि वेदांत श्रवण (च च मध्य ६ १२४) एक सार्वभौम भट्टाचार्य थे उस समय, चैतन्य महाप्रभु के समय में। बड़े भारी नैय्या और सांख्य संप्रदाय को फॉलो करने वाला था, निराकारवादी और चैतन्य महाप्रभु से मुलाकात हुआ जग्गनाथ पूरी में। ये सार्वभौम भट्टाचार्य पूरी का जो महाराज उसका सभा पंडित थे और बड़े-बड़े सन्यासी को सीखाते थे। तो सार्वभौम भट्टाचार्य से मुलाकात हुआ। इस तरह से की चैतन्य महाप्रभु पहले जग्गनाथ मंदिर में कीर्तन करने के लिए आये और भगवान का श्री मूर्ति देख करके उसी समय मूर्छित हो गया। उंकोंशियस हो गया। सार्वभौम भट्टाचार्य उस समय मंदिर में उपस्थित थे। तो वो तो पंडित थे, सब चीज़ जानते थे की इस प्रकार ये तो साधारण मनुष्य नहीं है। तो देखा की इसका क्या परिस्थिति है; तो आँख में थोड़ा रुई लगा दिया और देखा रुई थोड़ा-थोड़ा हिल रहा है और सब स्टॉप हो गया। तो उस समय दोनों का चाकर उधर उपस्थित थे। उनको बोलै की ये साधु को, सन्यासी को हमारा घर में लेके जाओ। तो उनको ले गए और उनके पीछे जो चैतन्य महाप्रभु के साथ में जो आने वाले थे, उनका पार्षद सब, वो भी मंदिर में पहुँचा, देखा की चैतन्य महाप्रभु है नहीं। परन्तु जितने सब दर्शक थे आपस में बात-चीत कर रहे थे की बंगाल से एक नौजवान सन्यासी आया है, बड़ा सुन्दर है और जग्गनाथ मंदिर में आते ही और दर्शन करके बिलकुल मूर्छित हो गया। तो बोलबाला चल रहा था। तो वो लोग समझ गया की चैतन्य महाप्रभु आये थे और किधर कोई ले गए होंगे, ऐसा मूर्छित हो गए। तो वो सब को एक सार्वभौम भट्टाचार्य का साला, वो भी बड़ा भारी पंडित, उसका परिचय था गदाधर पंडित से, तो वो ले गया सबको सार्वभौम भट्टाचार्य के पास, मकान में और उधर जा करके ये जितने चैतन्य महाप्रभु के परिचर थे, वो सब "हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे, हरे राम हरे राम" ये कीर्तन करने लगे। तब जाकर चैतन्य महाप्रभु की होश आ गयी। फिर स्नान करके जग्गनाथ जी का परशाद पा करके, सार्वभौम भट्टाचार्य का पिता और चैतन्य महाप्रभु के दादा, नाना, वो क्लास फ्रेंड, सहपाठी। तो इससे कुछ ग्राम का भी संपर्क हो गया। तो सार्वभौम भट्टाचार्य कुछ स्नेह भी हुआ क्यूंकि पुत्र हुआ। वो कहा की "बेटा तुमने इतना जल्दी सन्यास ले लिया, तुम्हारा चौबीस वर्ष मात्र उम्र है और तुम सन्यास किस तरह से रक्षण करोगे। सब समय वेदांत पढ़ो और उसी में मग्न रहो तभी तुम सन्यास का रक्षा कर सकोगे" तो बोलै महाराज ठीक है। आप तो हमारा पिता सामान है, मैं तो बालक है आपके पास। आप जैसे कहेंगे उसी प्रकार काम करेंगे। आप तो सन्यासी का भी गुरु हैं। ऐसा कुछ सम्मान उनको दिया। फिर वो वेदांत शुरू किया। सार्वभौम भट्टाचार्य वेदांत को पढ़ने को शुरू किया और चैतन्य महाप्रभु सुनने को लगा और सात रोज़ तक केवल सुना। तो सार्वभौम भट्टाचार्य को संदेह हुआ की ये लड़का सुन रहा है लेकिन कुछ पूछता नहीं है, केवल सुनता है। ये क्या सुन रहा है इसको थोड़ा पूछा जाय। तो "सात दिन पर्यंत ऐसे करिये श्रवण, बलवंत नहीं कहे बोशी मात्र सुने" और चैतन्य महाप्रभु, ये जो सार्वभौम भट्टाचार्य जब विचार प्रस्तुत कर रहा था तो उसमे अच्छा है की बूरा है कुछ नहीं बोलता था केवल सुन रहा था। "अष्टम दिवस तारे पूछे सार्वभौम"। आठवां दिन में सार्वभौम भट्टाचार्य उनसे पुछा, क्या पुछा "सात दिन करा तुमि वेदांत श्रवण भाला-मंद नहीं कहा, रहा मौन धरि बुझा, कि ना बुझा,—इहा बुझिते ना पारी"। कहते हैं की मैं तुम्हे सात दिन वेदांत प्रवचन दे रहा हूँ और तुम केवल चुप से सुन रहा है। और क्या ठीक हुआ, नहीं ठीक हुआ ऐसे कुछ प्रश्न तो होनी चाहिए। फिर क्या मतलब है तुम्हारा ऐसे चुप-चाप सुनते रहो। भाला-मंद नहीं कहा, रहा मौन धरि बुझा, कि ना बुझा,—इहा बुझिते ना पारी तो इसलिए हमको समझ में नहीं आता है की तुम वेदांत श्रवण करके कुछ उपलब्ध कर रहा है की नहीं। न केवल सुन रहा है, क्या बात है? वो थोड़ा आश्चर्य हुआ।

"प्रभु कहे —“मूर्ख आमी, नाही अध्ययन" और चैतन्य महाप्रभु कहते हैं की महाराज मैं तो बहुत बड़ा मुर्ख हूँ और हमारा कुछ वेदांत का ध्यान भी नहीं है। देखिये। ये चैतन्य महाप्रभु के समझाने का, ये आगे जाके समझायेंगे। चैतन्य महाप्रभु अपने को मुर्ख कह के बतला रहे हैं। तो मुर्ख तो वो नहीं थे। आगे जेक प्रमाण मिलेगा। क्यों मुर्ख कहते हैं। तो उनके कहने का मतलब है की आज कल का दुनिया में सभी मुर्ख हैं। वो वेदांत को क्या समझेंगे। ये कहने का मतलब है। इसलिए वो सब मुर्ख का प्रधान प्रतिनिधि हो गए की मैं तो मुर्ख है और वेदांत हमारा अध्ययन भी है नहीं। "तोमार आज्ञाते मात्रा करिए श्रवण"। क्यूंकि आपने कही की तुम बहुत कम उम्र में सन्यास किया है इसलिए तुम्हारा ये धर्म सन्यास रक्षा करने के लिए तुमको चाहिए वेदांत श्रवण। तो इसलिए मैं श्रवण कर रहा हूँ। असल में मई मुर्ख है और वेदांत कोई अध्ययन भी नहीं है और न हम वेदांत को समझने के लिए योग्य पुरुष हैं। "संन्यासी धर्म लागी श्रवण मात्रा करी"। आपने सही कही की सन्यास का धर्म है की सब समय वेदांत को पढ़ना चाहिए तो इसलिए मैं सुन रहा हूँ और "संन्यासी धर्म लागी श्रवण मात्रा करी तुमि ये अर्थ करा, बुझिते ना पारी”। और थोड़ा अटैक कर लिया। केवल आपने कही की सन्यास का उचित है वेदांत का श्रवण करना चाहिए इसलिए मैं बैठ-बैठ के सुन रहा हूँ। और आप जैसे इसको प्रस्तुत कर रहे हैं, इसका हम कुछ अर्थ नहीं समझ रहे हैं। बिलकुल नहीं समझ रहे हैं। देखिये; अब कौन मुर्ख हुआ? "भट्टाचार्य कहे, — ना बुझी’, हेना ज्ञान यार बुझीबार लागी’ सेहा पूछे पुनरबार"। भट्टाचार्य कहते हैं मान लिया की तुम वेदांत को नहीं समझ रहे हो मैं जैसा बोल रहा हूँ तो कम-से-कम पूछना भी तो था।   कुछ नहीं समझ रहे हैं, तो अच्छी तरह से समझाइये, तो तुम चुप-चाप क्यों बैठे हो? बड़ा इंटरेस्टिंग है। तुम चुप-चाप क्यों बैठे हो, कुछ बतलाना भी तो था। "तुमि शुनी शुनी रहा मौन मात्र धरी हृदये की आछे तोमार, बुझते ना पारी"। भट्टाचार्य तो बहुत बड़े विद्वान थे। वो समझ गया की ये जो लड़का है जैसे कह रहे हैं इसका और कुछ मतलब है। वो समझ गया है। तो इसलिए कहते हैं की तुम सुन-सुन के चुपचाप रहते हो मुझे मालूम होता है की तुम्हारा भीतर में कुछ मतलब है। "प्रभु कहे, — “सूत्रेरा अर्थ बुझिए निर्मल"। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं की महाराज ये जो सूत्र आप बताते हैं इसको हम बहुत अच्छी तरह से समझ गए हैं और आप का जो एक्सप्लनेशन है वो हमको कुछ समझ में नहीं आती। सूत्र तो हम बहुत जल्दी समझ गए। बाकि समझने में क्या मुश्किल है। 

"अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" ये जो मनुष्य जीवन है अब ब्रह्म वास्तु क्या चीज़ है उसको जिज्ञासा होनी चाहिए। ये तो सब कोई समझता है, इसमें कोई मुश्किल नहीं है और उसका उत्तर जो है वेदांत में कहते हैं "जन्माद्य अस्य यतः" जो ब्रह्म वस्तु जो है वोही वस्तु है जहाँ से सब चीज़ का जन्म होता है। ये तो सब लोग समझ लेंगे, तो चैतन्य महाप्रभु क्यों नहीं समझेंगे। इसलिए वो कहते हैं की सूत्र का जो अर्थ है वो बड़ा सरल है और मैं समझ लेता हूँ। और आप जो उसको एक्सप्लनेशन करते हैं वो हमको बिलकुल नहीं समझ में आता है। फिर कहते हैं "“सूत्रेरा अर्थ बुझिए निर्मल" निर्मल का अर्थ है वैरी क्लियर। आई कैन अंडरस्टैंड दी मीनिंग। और जो सूत्र है वैरी क्लियर, विथाउट एनी डाउट। "तोमार व्याख्या शुनी मन हया त विकल"। और आप का जो अर्थ बताते हैं वो सुन करके हमारा जो ह्रदय है वो विकल हो जाता है, बिकुल परेशान हो जाता है। समझ गए, अब ये चैलेंज हुआ। "सूत्रेर अर्थ भाष्य कहे प्रकाशीय" चैतन्य महाप्रभु कहते हैं की सूत्र का कोई भाष्य लिखना चाहिए, टीका टिपण्णी लिखना चाहिए, बोलना चाहिए, तो उसको और निर्मल कर देना, प्रकाश कर देना और आप जैसे व्याख्या कर रहे हैं, वो कहते हैं "तुमि, भास्य कहा — सूत्रेर अर्थ आच्छादिया" और आप जो ये सूत्र का व्याख्या कर रहे हैं वो तो और आप इसको ढक देता है, सूत्र का अर्थ प्रकाश नहीं होता है। जैसा सूर्य का रश्मि जो है वो तो स्वयं प्रकाशमान है, उसको किसी का और प्रकाश करने का जरूरत ही नहीं है, परन्तु अगर कोई बदल आ करके सूर्य के सामने ढक दिया जाये तो अच्छी तरह से समझ लो। आप का एहि बात है। आप का अर्थ जो है वो और उसको ढक देता है। ये सूत्र का अर्थ तो बहुत प्रकाशमय है, उसको और कोई समझने में कोई मुश्किल नहीं है। परन्तु आप का जो व्याख्यान है उसको ढक देता है। जैसा आज कल का भगवद-गीता का व्याख्यान करते हैं। कहते हैं "धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे सम वेता युयुत्सवः"। ये कुरुक्षेत्र जो है कोई कहते हैं ये शरीर है। आप लोग जानते हैं ऐसे व्याख्यान होता है। अब देखिये धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, कुरुक्षेत्र अभी तक मौजूद है आप लोग सब लोग जानते हैं, उस दिन जब अमृतसर से हमलोग आ रहे थे तो कुरुक्षेत्र स्टेशन में गाडी खड़ा रहा और हमने उनको समझाया की देखो जी ये कुरुक्षेत्र स्टेशन आजतक मौजूद है, ये कुरुक्षेत्र है और कोई-कोई कहते हैं की ये कुरुक्षेत्र का अर्थ है ये शरीर। तो धर्म क्षेत्र, आज के कुरुक्षेत्र में सब धर्म याजन करने के लिए, तीर्थ करने के लिए कुरुक्षेत्र अभी तक जाते हैं और वेद में ऐसे लिखा है "कुरुक्षेत्रे धर्म याजाएत"। तो वेद बहुत पुराण ज़माना से चालू है। ये कुरुक्षेत्र धर्म क्षेत्र है। तो भगवद-गीता में व्यासदेवजी कहते हैं धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्रे तो उसको समझने में क्या मुश्किल होता है। बाकि कोई-कोई आदमी कहता है ये कुरुक्षेत्र शरीर है, और कुछ है, और कुछ है। आज कल गीता का व्याख्यान ऐसे चल रही है। आपलोग सब जान लें। तो इसीलिए गीता पढ़ते-पढ़ते सब बुड्ढे हो जाते हैं, बल्कि कुछ समझते नहीं। बस वो ही समझते हैं ये दुनिया में, संसार में किस तरह से बद्ध होकरके रहा जाये। तो आज कल में कोई उपकार नहीं होता है जैसे बड़ा-बड़ा डॉक्टर राधाकृष्ण इसके ऊपर लिखा है कमेंट और कहते हैं जो वो सूत्र श्लोक है "मन मना भव मद भक्तो मद याजी मां नमस्कुरु" ये अर्थ जो है बहुत सरल है। भगवान कहते हैं की सब समय हमारा चिंतन करो, मन मना भव मद भक्तो, हमारा भक्त बनो, हमको नमस्कार करो। इस तरह से भक्ति में साधन करो और मैं तुमको निश्चित कहता हूँ की इस जीवम के बाद तुम हमारे पास चले आओगे। ये तो अर्थ में कोई मुश्किल नहीं है। बाकि डॉक्टर राधाकृष्णन तो बोलता है की ये जो भगवान कह रहे हैं, कृष्णा, मन मना भव मद भक्तो, ये कृष्णा को नहीं, बल्कि जो कृष्णा के भीतर वो जो चीज़ है। अब देखिये उनको मालूम नहीं है की कृष्णा का भीतर-बाहर कुछ नहीं है। कृष्णा इस अब्सोल्युट। अब्सोल्युट का भीतर-बाहर कैसा होगा। शास्त्र में कहते हैं "अभिननत्य नाम नामीणो" अब्सोल्युट तो ऐसा ही होता है। "ब्रह्मेति परमात्मेति भगवान् इति शब्द्यते" "वदन्ति तत्त्व-विदस तत्त्वं यज् ज्ञानम् अद्वयम्"। भगवान का विषय जो ज्ञान है वो अड्व्यय ज्ञान है, केवल है, उसमे कोई बाहरी चीज़ है ही नहीं। भगवान, भगवान का नाम, भगवान का शरीर, भगवान का रूप, भगवान की लीला, भगवान का परिकर, वैशिष्ट, सब भगवान है, अब्सोल्युट बोलते हैं।

और डॉक्टर राधाकिर्श्ना बोलते हैं उसका भीतर और कुछ है। इसी प्रकार कलत्र करके, शास्त्र विचार करके ये जो हमारा भारतीय हिस्ट्री पतन हो गया। सब धर्म ज्ञान विलीन हो गया। सरल अर्थ नहीं लिया। इधर-उधर का बात करते हैं ,रिसर्च करते हैं। आज के लोग रिसर्च करते हैं वेद का। तो वेद का अर्थ रेसेरच करने के लिए थोड़ी ही है। ये बड़े-बड़े ऋषि लोग, ये कोई मुर्ख है जो रेसेरच करेंगे। नहीं। वेद का अर्थ जो जिस तरह से है उस तरह से ग्रहण करा चाहिए। ये सब चैतन्य महाप्रभु आगे सब बताएँगे की वेदांत का अर्थ क्या चीज़ है। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं "सुतरेर अर्थ भास्य कई प्रकार"। यदि आज कोई सूत्र का भास्य आपको लिखना है तो सौ प्रकार से है। जैसे धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे सम वेता युयुत्सवः" ये तो सरल अर्थ है। कुरुक्षेत्र एक स्थान है, धर्मक्षेत्र भी है और महाभारत का हिस्ट्री में है। ये दो जो चचेरा भाई पांडवा और कुरु वो लोग लड़ाई भी किये थे और ये कुरुक्षेत्र का धर्मक्षेत्र जान करके, इतना अर्थ समझने में मुश्किल क्या है? इसमें क्यों मैं अपना दिमाग लगता हूँ की कुरुक्षेत्र का अर्थ है शरीर और पंच पांडव का   इन्द्रिय और इधर-उधर का अर्थ। क्यों? क्या जरूरत है? ये क्या कृष्णा छोड़ गया था कोई व्यक्ति को अर्थ लगाने के लिए? हमारा आगे और एक बड़े विद्वान आएंगे और वो उसका कमेंटरी लिखेंगे? कृष्णा क्या इतना मुर्ख है की सबको सीधा-सीधा बात नहीं कह करके, एक आगे रास्कल आएंगे, वो कमेंट लिखा करके उसको समझायेंगे। ये कोई बात है? तो अगर कमेंट कोई आप लिखते हैं तो और उसको प्रकाश कीजिये, उसका नाम है ज्ञान; उसको ढ़ाक देने से क्या होगा? जैसे एक आदमी पूछा, मास्टरजी के पास गया 'मास्टरजी ये व्याघ्र का क्या अर्थ होता है? तो वो बोला सादूर । वो बिचारा और परेशान हो गया (सब लोग हँसते हुए)। ब्याघ्रा का अर्थ क्या है न सादूर। कह देता सीधे-सीधे व्याघ्र का अर्थ होता है बाघ तो वो समझ लेता। लेकिन नहीं वो बोला सारदूर। तो इस प्रकार का जो कमैंट्स लिखना है बेकार का है, ये चैतन्य महाप्रभु का कहने का अर्थ है। चैतन्य महाप्रभु के केहने का अर्थ है की वेदांत सूत्र का अर्थ बहुत सरल है, मैं समझ लिया है। फिर आप ऐसा कमेंट करते हैं जो उसको बिलकुल ढ़ाक देता है। ये आपका कमेंट नहीं समझा। "सुतरेर अर्थ भास्य कई प्रकाश सुतरेर अर्थ आछादिया, आच्छादिय मने कवर्ड। व्हाटएवर यू आर स्पीकिंग यू आर सिम्पली कवरिंग, दैट्स आल। "सुतरेर मुख्या अर्थ न करा व्याख्यान" मुख्या और गौण, दो अर्थ हैं जब अर्थ समझ में नहीं आता है तो वो गौण अर्थ होता है जैसा शास्त्र में कहते हैं की गंगा का ऊपर एक घोसपल्ली हैतो कोई पूछ सकता है की गंगा तो नदी है उसमे पल्ली कैसा। तो उसका अर्थ आप लगा सकते हैं की नहीं बिलकुल जल में नहीं है, गंगा का किनारा में है। ये अर्थ समझ में आता है। और जब बिलकुल मालूम होता है उसका अर्थ तो उसमे कोई संदेह नहीं रहता है। उसको कमेंट करने का कोई ज़रुरत ही नहीं। गौण अर्थ करने का कोई ज़रुरत ही नहीं है। इंटरप्रेटेशन करने का कोई जरूरत ही नहीं है। तो चैतन्य महाप्रभु कहते हैं "सुतरेर   जो आप जो हैं सूत्र का मुख्य अर्थ, जो असल मतलब है उसको तो आप व्याख्यान ही नहीं करते हैं। "मुख्या अर्थ न करो व्याख्यान, कल्पना से तुमि न करो आस्वादन"। और आप ये कल्पना करके उसको आस्वादन कर रहे हैं। उपनिषद् से ही मुख्य अर्थ। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं की ये उपनिषद् जो है जो जैसे-जैसे बताते हैं वो ही उसका मुख्य अर्थ है।  

उसको कल्पना करने का कोई जरूरत नहीं। "उपनिषद् ये ही मुख्य अर्थ होइ ये "। उसी को आलम्बन करके व्यास देव वेदांत सूत्र लिखे हैं। उसमे कोई और अर्थवाद करने की आवश्यकता है नहीं। "मुख्य अर्थ चिड़िया करो गौण अर्थ कल्पना अविधा वृत्ति छाड़ि करो सर्वे लक्षणा"। आप की जो व्याख्यान करने की पद्दति है ये तो मुख्य अर्थ को आप छोड़ देते हैं। छोड़ दे करके और एक कल्पना करके आप तो कहते हैं जिसको व्याकरण शास्त्र में कहते हैं "अविधा वृत्ति छाड़ि करो सर्वे लक्षणा"अविधा वृत्ति और लक्षणा वृत्ति छोड़ करके। देखिये वेद व्यास उद्देश्य करिया गौण अर्थ कल्पना कहा गया है। फिर ये अविधा वृत्ति (बंगाली में बोले)। ये अमृत प्रवाह भाष्य श्री भक्तिविनोद ठाकुर, कहते हैं चार प्रकार के प्रमाण हैं: प्रतक्ष्य, अविधा, शब्द प्रमाण। ये तीन प्रकार के भीतर में शब्द प्रमाण जो है, वेद का जो वचन जो है उसका नाम है शब्द प्रमाण। वो ही सबसे ठीक है। प्रतक्ष्य प्रमाण भी ठीक नहीं। प्रत्यक्षहमलोग बहुत वस्तु देख रहे हैं बाकि इसको जो वास्तविक जो स्वरुप है उसको हमलोग, जैसे सूर्य है। सूर्य हमलोग रोज़ाना देख रहे हैं, क्या देखना है जैसे छोटी सी थाली। बाकि वास्तविक सूर्य का स्वरुप वो नहीं है। सूर्य का जो स्वरुप है शास्त्र में, जियोग्राफी के अनुसार आपके बड़े-बड़े जो विद्वान हैं, भक्ति सिद्धांत एस्ट्रोनॉमी के विषय में वो कहते हैं की सूर्य जो है चौदह लाख गुना बड़ा है। बकै हम देख रहे हैं प्रत्यक्ष अपना इन्दिर्य का जो ज्ञान लाभ करते हैं वो सम्पूर्ण ज्ञान है नहीं। इसलिए शब्द प्रमाण हमारा शास्त्र में मूल प्रमाण मानते हैं, वो ही ठीक है। शब्द प्रमाण जो वेद का वचन है उसको मानना चाइये और और उसमे अनुमान और प्रतक्ष्य, ये सब प्रमाण उसमे ठीक नहीं है। "मुख्यार्थ करो गौणार्थ कल्पना, अविधा वृत्ति करो छाड़ि लक्षणा" "प्रमाणेर मध्ये श्रुति प्रमाण प्रधान"। जितने प्रमाण है, वो श्रुति प्रमाण जो है वो सबसे प्रधान है। "श्रुति से मुख्यार्थ कहे एई प्रमाण"। श्रुति मुख्यार्थ, जो मूल अर्थ है जो फल करके उसी वक्त आप समझ जायेंगे की वोई अर्थ ठीक है। उसमे अपना मन-माफिक कोई अर्थ लगाकर के श्रुति को जानना उचित नहीं है। ये चैतन्य महाप्रभु का कहना है। "जीवेर अस्ति विषय दुइ संख्या गोमोई श्रुति वाक्य से दुइ महा पवित्र होय"। एक उधारण सिर्फ दे रहे हैं; जो जीव का या जानवर का उनकी जो हड्डी होती है वो अपवित्र माना जाता है। हमारा वैदिक नियम से जैसे हमलोग सवेरे निपटने जाते हैं वैसे स्नान करने का उचित है यदि अपने । तथापि मल से स्पर्श होने के कारण अपवित्र हो गया है। ये हमलोग सब कुछ जानते हैं इसलिए हमको स्नान करके पवित्र होना चाहिए। इसी प्रकार रस्ते में जाते-जाते अगर कोई हड्डी छु लिया तो उसको हमको स्नान करना चाहिए शाश्त्र में ये विधि है, चैतन्य महाप्रभु ये प्रमाण दे रहे हैं की "जीवेर अस्ति भिक्षा दुइ "। ये जो हमलोग बजाते हैं भगवान के मंदिर में ये तो अस्ति एक हड्डी है और गोबर जो है ये तो है गाय का। "सूचि महा पवित्र"। शास्त्र खुद कहते हैं दो चीज़ पवित्र; ये शंक में जो हड्डी है इसको अगर कोई इंटरप्रेटशन करे की भाई हड्डी तो अपवित्र है और मैला जो है वो भी अपवित्र है। ये कैसे करते हैं की गाय का जो गोबर है वो भी पवित्र है और शंख का जो हड्डी है वो भी पवित्र है, ये कैसे माना जाय। ये मानते हैं हमलोग क्यूंकि वेद का वचन है सारा हिन्दू कम्युनिटी उसको मानते हैं क्यूंकि भगवान का अंग लेपन कर दिया जाता है गोबर से, गोमूत्र से, गोमय से और शंख का जो हड्डी है अच्छी तरह से भगवान के आरती के समय बजाया जाता है। तो वो तो हमारा विचार से यदि लॉजिक हमलोग ले आते हैं की ये जो हड्डी कैसे पवित्र हो सकता है, ये हो ही नहीं सकता है। वो लॉजिक नहीं चलता है बस हमलोग जीवन में जो वेद बताते हैं की ये पवित्र है तो हमलोग उसको मान लेते हैं। चैतन्य महाप्रभु के कहने का मतलब है की इसी प्रकार वेद वचन मानना चाहिए, उसमे आर्गुमेंट, कमेंट नहीं देना चाहिए।


"ततः प्रमाण वेद सत्य एहि "। साधारणतः हमलोग वेद प्रमाण से ही सब कुछ ग्रहण करते हैं। जो कुछ हमलोग का नॉलेज है जैसे-जैसे वेद में कहते हैं उसी को मान लेते हैं। इसी लिए जो उनका मुख्य अर्थ है उसको ही ग्रहण करना चाहिए। उसका इधर-उधर कोई टिपण्णी लगा करके उसको समझना ये ठीक नहीं है। जो रिसर्च करके इसका अर्थ निकालो। कोई अगर कहे की ये हमलोग जानते हैं की ये जो मैला है, ये जो हड्डी है ये अपवित्र है, ये उधर वेद में कह दिया की गाय का जो गोबर है और शंख का जो हड्डी है ये पवित्र है इसमें रिसर्च क्या? क्यों ऐसा कह दिया? इसका कोई जरूरत नहीं है। इसलिए शत: प्रमाण, वेद वचन का शत: प्रमाण। हमलोग का पंडित समाज में एहि है की अगर कोई चीज़ स्थापित करने को चाहते हैं वेद प्रामाणिक वचन उसमे देने से वो जो अपवित्र है वो जो कहते हैं वो ठीक है वेद का प्रमाण मिला ठीक है। जैसे लॉ कोर्ट में आप जाइये तो आपको कानून का किताब से अगर उसमे क्वोटेशन दे दीजियेगा देखिये इस जगह में ऐसे कहते हैं तो जो जज है वो मान लेते हैं की हाँ ये ठीक है। तो इसी वेद का वचन का कोई परिवर्तन करने का आवश्यकता है नहीं। जैसे-के-तैसे आपलोग ले लीजिये और जैसे-के-तैसे आपलोग समझ लीजिये तो वेद कहते हैं की कोई गौण अर्थ नहीं करके केवल मुख्यार्थ करके तभी आपको वेद पढ़ना ठीक रहेगा और नहीं तो आप खाली वेद का बात नहीं है। जैसे भगवद-गीता है उसी प्रकार। जैसे भगवान कहते हैं भगवद-गीता में "मत्तः परतरं नान्यत किंचिद अस्ति धनञ्जय" तो फिर क्यों हमलोग नहीं माने? जब भगवान, कृष्ण को तो भगवान सब कोई मानते हैं, सब आचार्य लोग मानते हैं और भगवान कहते हैं की हमसे बड़ा और कोई नहीं। और अर्जुन भी कहते हैं "परम ब्रह्मा परम धामा पवित्रम परम भवान" अर्जुन भी मान लेते हैं। तो क्या जरूरत है की कृष्ण का अर्थ और कुछ लगाया जाय और कृष्ण जो कहते हैं उसका अर्थ और कुछ लगाया जाय? ये जो हमारा चैतन्य महाप्रभु का आज जो संप्रदाय है ये उसको नहीं मानते हैं। जैसे वेद आदि शास्त्र में लिखा है इसलिए हमलोग भगवद-गीता एस इट इस प्रचार कर रहे हैं। आप शायद हमारा वो किताब देखे होंगे? तो हमलोग ऐसा अर्थ नहीं लगते हैं की कुरुक्षेत्र का अर्थ ये होता है, पांडव का अर्थ ये होता है, और कुछ होता है, इधर अंट-शंट होत। गया, कोई-कोई कहते हैं भगवान को कहाँ देखे, ये जो रस्ते में इतना दरिद्र लेटे हैं ये ही तो भगवान है। तो इस प्रकार अर्थ हमलोग नहीं कहते हैं। हमलोग कहते हैं "कृष्णस तू भगवान स्वयं"। जैसे आचार्य लोग कहते हैं। सब बड़े-बड़े आचार्य जिससे हमारा-तुम्हारा भारतीय सभ्यता है, बड़े-बड़े रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, निम्बार्क, विष्णु स्वामी, शंकराचार्य, सब जितने हम अपने को हम हिन्दू कहते हैं, कोई-कोई ये चार-पांच लीडर आचार्य हमलोग मानने वाला है। तो सब आचार्य, बड़े-बड़े आचार्य जैसे शंकराचार्य निर्विशेषवादी होते हुए भी भगवान कृष्ण को मानते हैं की ये स्वयं भगवान, की भगवान स्वयं कृष्ण और देवकी-नंदन। और वैष्णव आचार्य जैसे निम्बार्क है, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य है, चैतन्य महाप्रभु है सब कोई मानते हैं की "कृष्णस तू भगवान स्वयं" औअर शास्त्र का निर्देश है की भगवान, मूल भगवान, ऐसे तो भगवान का अनेक "अद्वैतं अच्युतम अनादि अनंत रूपम" अनेक रूप है, बाकि जो मूल रूप है "अहम् आदि ही देवानाम"। भगवान कहते हैं की मैं सब देवता का आदि है। और;

अहम् सर्वस्य प्रभवो
मत्तः सर्वं प्रवर्तते
इति मत्वा भजन्ते माम्
बुद्धा भाव-समन्विताः

ये भगवान खुद भी कहते हैं और बड़े-बड़े भक्त जो हो गए हैं तो वो भगवान को मानते हैं तो क्यों हमलोग कृष्ण को सम्पूर्ण भगवान क्यों नहीं माने? ये कहने का मतलब है। इसीलिए हमारा धर्म का पतन हो गया है। तो भगवान तो मौजूद है। भगवान सामने खड़ा होकर के आपको उपदेश दे रहा है और उपदेश आज तक मौजूद है, बड़े-बड़े भक्त लोग भी मौजूद हैं, फिर हमलोग क्यों कहते हैं की भगवान को दिखा सकते हैं, भगवान है की नहीं और हम भगवान को मानते नहीं ऐसे-ऐसे भगवान मर गया। क्यों ये सब बात चल रहा है? तो इसको हमलोग चाहते हैं बंद करने के लिए। ये कृष्ण कोशिएसनेस्स मूवमेंट जो है, भगवान है, क्यों भगवान नहीं है? भगवान है और वो सामने आपका प्रस्तुत भी है, उनको निर्देश भी है , और उनका जो उपदेश है वो भी मौजूद है और सब मानने वाले बड़े-बड़े आचार्य सब हैं, आप क्यों नहीं मानते हैं? ये हमारा प्रचार एहि चलेगा। विचार कीजिये और विचार करके कृष्णा कोशिएसनेस्स मूवमेंट में सहयोग कीजिये। ये मूवमेंट बढ़ रहा है और आपलोग सहयोग करेंगे तो और आगे बढ़ेगा। इसका फल होगा जो भारतवर्ष, अभी सारा दुनिया में दरिद्र रूप से परिचित है, यदि आप कृष्णा कोशिएसनेस्स, यदि आपके देश में ये जो संपत्ति है कृष्णा इसको यदि आप सारा दुनिया में देंगे तो सारा दुनिया पर उपकार होगा, आपका उपकार होगा, आपका जीवन सार्थक हो जायेगा। ये हमारा कृष्णा कोशिएसनेस्स मूवमेंट, (क्या नाम दिया?) कृष्णा भावनामृत संघ का उद्देश्य है तो आप लोग के सामने हमलोग सब आये हैं, आप लोग देखिये, पूछ-ताछ कीजिये, और समझिये, और हमलोग का साथ दीजिये और नहीं तो फिर सारा दुनिया, सारा भारत वो ही हो जायेगा नक्सलाईट। जब तक असल बात उनको नहीं सुनाएंगे, वो तो माओ का बात, इसका बात, उसका बात, मार्क्स का बात, ये हो तो सुनेगा। कोई तो आइडल मेन डेविल'स वर्कशॉप"। इसलिए "कौमारं आचरेत प्रागणो धर्मान भगवतां इहां" प्रह्लाद महाराज का कथन। इसलिए कौमार अवस्था से, जैसे आपलोग कौमार जिसका शादी नहीं हुआ है १५-१६-२०, उसको कुमार कहते हैं। कुमार अवस्था से, यानि स्कूल से शुरू करना चाहिए। "कौमारं आचरेत प्रागणो धर्मान भगवतां इहां"। भागवत धर्म ये है की भगवान क्या चीज़ है, और हम क्या चीज़ है और दुनिया क्या चीज़ है, भगवान से, दुनिया से हमारा क्या संपर्क है, भागवत भजन करने से हमारा क्या लाभ होगा, ये सब चीज़ जो समझना है इसका नाम है भगवद धर्म। ये तो स्कूल, कॉलेज में समझाना, पढ़ाना चाहिए। बाकि क्या कहें "अँधा यथान्दैर उपनियमान" हमारा सब लीडर लोग भगवान को उड़ा देना चाहते हैं , ये ठीक नहीं है। लीडर लोग उड़ा देना चाहते हैं तो जो कुछ है वो है। आप लोग जो है नौजवान इसको अच्छी तरह से समझिये और इधर हमलोग का मौजूद है खूब अच्छी तरह से समझिये और खूब अच्छी तरह से प्रचार कीजिये यदि आप दुनिया में सुख देने को चाहते हैं क्योंकी भगवान संपर्क नहीं होने से;

भगवद्-भक्ति-हीनस्य
जातिः शास्त्रं जपस तपः
अप्राणस्येव देहस्य
मण्डनं लोक-रंजनम्

भगवद भक्ति हीन करके जातीवादी हो गए हैं की आप जाती, नेशन का उन्नति करने के लिए जाते हैं, कुछ उन्नति नहीं होगी क्यूंकि आप तो समझ ले आप तो इंडिपेंडेंट हो गया, न जाने हमको क्या मिल गया। बाकि हम सारा दुनिया घूम-घाम के आये हैं, भारतवर्ष में कोई इज़्ज़त नहीं है। वो कहते हैं भिकारी का देश है, गरीब का देश है। आपका एक पैसा भी वो लोग ग्रहण नहीं करते हैं। उसका कुछ कीमत है नहीं। आप इधर से नोट ले जाइएगा तो उधर एक पैसा नहीं बिकेगा, कोई लेगा भी नहीं। और अमेरिकन का डॉलर इधर ले आइयेगा तो उसका बैंक वैल्यू है साढ़े सात और पन्द्र रूपए में बेच दीजिये। क्यूंकि उसका देश का इज़्ज़त है। आपका देश का कोई इज़्ज़त नहीं है। आपलोग झूट-मूट घमंड है की बड़ा हमलोग शागिर्द हो गया, बड़ा हमलोग हासिल कर लिया। यदि आप इज़्ज़त बढ़ाने को चाहते हैं ये कृष्णा कोशिएसनेस्स मूवमेंट में जोइन कीजिये, इसको बढ़ाइए और अपना इज़्ज़त बढ़ाइए। थैंक यू वैरी मच। हरे कृष्णा

भक्त: कीर्तन?

प्रभुपाद: हाँ, थोड़ा सा कीर्तन। (हिंदी) (ब्रेक) (एंड)।