731026 - Lecture BG 07.01 Hindi - Bombay
A.C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada
Pradyumna: "Now hear, O son of Pṛthā, how by practicing yoga in full consciousness of Me, with mind attached to Me, you can know Me in full, free from doubt." (BG 7.1)
Prabhupāda: So, which language I shall use? English or Hindi? If I speak in Hindi . . .
Guest: . . . (indistinct)
Prabhupāda: But if I speak in Hindi they'll not understand. As you say. Hmm? Majority? (laughter) Shall I speak in English? (Hindi) Thank you. So they want me to speak in Hindi, We got permission? (Hindi) (laughter) So, shall I speak in Hindi? (laughter) Hey?
Devotee: A little of both? Maybe a little of both?
Prabhupāda: Both . . . (indistinct) . . . little? Hmm.
Śrī-bhagavān uvāca. (Hindi)
HINDI TRANSLATION
प्रद्युम्न: "हे पृथापुत्र! अब सुनो कि किस प्रकार मुझमें पूर्ण चेतना रखते हुए, मुझमें मन को अनुरक्त रखते हुए, तुम मुझे पूर्णतः जान सकते हो, संशय रहित होकर।" (भ.गी. ७.१) प्रभुपाद: तो, मैं कौन सी भाषा इस्तेमाल करूँ? अंग्रेज़ी या हिंदी? अगर मैं हिंदी में बोलूँ तो... अतिथि:... (अस्पष्ट) प्रभुपाद: लेकिन अगर मैं हिंदी में बोलूँ तो वे समझ नहीं पाएँगे। जैसा आप कहते हैं। हम्म? ज़्यादातर? (हँसी) क्या मैं अंग्रेज़ी में बोलूँ? गेस्ट: आपकी मर्जी प्रभुपाद: नहीं, हमारी मर्जी नहीं। हम तो आपकी सेवा करते हैं। इसीलिए, तो आपका परमिशन है? थैंक यू। गेस्ट: (अस्पष्ट) प्रभुपाद: तो वे चाहते हैं कि मैं हिंदी में बोलूं, हमें अनुमति मिली? गेस्ट: तभी भी महाराज अगर पार्शिअली……. प्रभुपाद: नहीं एक बात है। ये लोग बहुत दूर से आये हैं सुनने के लिए। ये भी एक बात है। गेस्ट: (अस्पष्ट) प्रभुपाद: नहीं दो तो नहीं हो सकेगा। तो क्या मैं हिंदी में बोलूं? (हंसी) अरे? भक्त: थोड़ा-थोड़ा दोनों? शायद थोड़ा-थोड़ा दोनों? प्रभुपाद: दोनों। दोनों इस थोड़ा….। श्री भगवान उवाच। भग। पहले थोड़ा हिंदी में ही बोल रहा हूँ। ये भग, ये शब्द का अर्थ होता है आपुलेन्स। अब देखे हिंदी इंग्लिश में शब्द है (हंसी)। क्यूंकि ज्यादा इंग्लिश में ही बोलने में अभयास है। भग, आपलोग समझते हैं जैसा कोई व्यक्ति को कहा जाता है भाग्यवान। ये भाग्य शब्द जो है ये भग शब्द से आया है। भग शब्द का जो भाव है उसको भाग्य कहा जाता है। भाग्य देशी, ये संस्कृत व्याकरण का एक प्रत्यय है। सो भगवान जो सबसे बड़ा भाग्यवान है उसको भगवान कहा जाता है। सिक्स आपुलेन्सेस। षडैश्वर्य पूर्ण भगवान।
- ऐश्वर्यस्य समग्रस्य
- वीर्यस्य यशसः श्रियः
- ज्ञान-वैराग्ययोश चैव
- षण्णां भग इतिंगना
ये छे प्रकार का भग, ऐश्वर्या जिस के पास है वो भगवान है। आजकल जैसा भगवान सब रास्त-रास्ता में घूमता रहता है वो भगवान नहीं। असल भगवान। असल भगवान जो है वो कृष्ण है। "कृष्णस तू भगवान स्वयं"। भगवान किसी के पास कुछ ऐश्वर्या है उसको भगवान आप कह सकते हैं बाकि जो असल भगवान है वो भगवान कृष्ण हैं। ये शास्त्र का निर्देश है। कभी-कभी शिवजी का भी भगवान कहा जाता है, नारदजी को भी कभी-कभी भगवान बताया है, ब्रह्माजी को भी बताया गया है। बाकि भगवान ओर गॉड। गॉड का अर्थ होता है इस्वर जो हुक्म देने वाला। ईश्वर। तो शास्त्र में ये भी बताया है,
- ईश्वरः परमः कृष्णः
- सच्चिदानंदविग्रह:
ये जो भगवान कृष्ण हैं, ये जो इस्वर हैं इनका सामने और जितने ईश्वर है "शिवा विरिंचि नुतं" भगवान शिव है, भगवान ब्रह्माजी है, और सब देवता हैं वो भी सब नमस्कार करते हैं "शिवा विरिंचि नुतं"। इसलिए भगवत शब्द एकमात्र कृष्ण में वो लगाया जा सकता है। लेकिन व्यासदेव जब भगवद-गीता लिख रहे हैं वो भगवान उवाचा। ये नहीं बताये हैं भगवान कृष्ण उवाचा। भगवान कृष्ण उवाचा कहने से और-और सब भगवान हैं और कृष्ण भी भगवान हैं। नहीं। साक्षाद भगवान उवाचा।
- ईश्वरः परमः कृष्णः
- सच्चिदानंदविग्रह:
- अनादिर आदिर गोविंद:
- सर्व-कारण-कारणम
भगवान कृष्ण जो है सबका कारण, देवता लोग का भी कारण।ये भगवद-गीता में बताया है "अहं आदिर हि देवानां" देवानां ब्रह्माजी से सब देवता लोग शुर होते हैं। ब्रह्माजी से महादेवजी पैदा हुए। तो और जितने भगवान हैं, देवता हैं, उसका आदि जो है वो कृष्ण हैं। "गोविन्दम आदि प्रुरुषं तम अहं भजामि" . भगवद-गीता में अर्जुन जब भगवद-गीता ठीक-ठीक समझा तो कृष्ण को बताया की "परः ब्रह्मा परं धामा पवित्रं परं भवान पुरुषं आद्यं" आदि पुरुष तो इसलिए इधर बताया है की भगवान उवाचा, कृष्णा वाचा नहीं कहा है। भगवान का अर्थ होता है जो ऐश्वर्य। जिसका पास संपूर्ण धन संपत्ति। आपका पास होगा १० करोड़ रूपया, और किसी का पास होगा १०० करोड़ रूपया, और किसी के पास, ऐसे ऐसे बढ़ते जाइये। बाकि कोई नहीं बता सकते हैं की हमारे पास सब धन है। ये कोई नहीं बता सकता है। इसलिए शास्त्र में कहते हैं :ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, समग्र ऐश्वर्य का जो मालिक है वो भगवान। वो असल भगवान है। खाली ऐश्वर्य नहीं; "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य" बल, बल भी चाहिए। भगवान कृष्ण जब उपस्थित थे बड़े-बड़े असुर से लड़ाई हुए थी। बाकि भगवान को कोई दबा नहीं सकता बल से। "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः"और उनका यश भगवान कृष्णा से और किसी का यश आगे बड़ा नहीं है। अभी देखिये पांच हज़ार वर्ष पहले कृष्णा इधर अवतीर्ण हुए थे भारतवर्ष में। उनका यश अभी तक चल रहा है। ये भगवद-गीता है। सारे दुनिया में सब कोई पढता है। यश भगवान ये कृष्णा कॉन्शियसनेस्स मूवमेंट चल रहा है। तो यश, उनका जो यश है, उससे बढ़कर के यश और किसी का है नहीं। आपलोग जरा विचार करिये। इसलिए भगवान है। "ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः" सौंदर्य, भगवान कृष्णा कितना सुन्दर है, अट्रैक्टिव। कृष्णा का अर्थ होता है अट्रैक्टिव। सबको आकर्षित करता है। सौंदर्य, ब्यूटीफुल, दी मोस्ट ब्यूटीफुल। कृष्णा, यू ह्वे सीन कृष्णास पिक्चर। भगवान कृष्णा उनका तस्वीर, आपलोग ने उनका तस्वीर कभी नहीं देखा होगा की वो बूढ़ा हो गया। सब समय नव युवक। सौंदर्य। ब्रह्मा संहिता में है भगवान के विषय में:
- अद्वैतम् अच्युतम अनादिम् अनंत-रूपम्
- आद्यम्
पहले तो भगवान ही होता है न उससे सब कुछ हुआ है "जन्मादि अस्य यथाः" सब कोई का जन्म भगवान से हुआ है। वेदांत सूत्र में इसी के बारे में बताते हैं "जन्मादि अस्य यथाः" तो अदि पुरुष भगवान है, कृष्णा। सबसे बुड्ढा होना चाहिए, बाकि नहीं नवयौवनं च। सब समय नवयुवा। कृष्णा का ये जो तस्वीर है कुरुक्षेत्र में जब लड़ाई हुई थी उस समय उसका ग्रेट ग्रैंडसन पपौत्र था, बाकि उनका चेहरा देखिए कोई बीस बरस का जवान लड़का। इसलिए उनका सौंदर्य “ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः ज्ञान” और ज्ञान भी उनसे बढ़ कर ज्ञान किसी का है नहीं। ये जो भगवद-गीता ज्ञान का पुस्तक है जैसे भगवान बताये हैं ऐसे दूसरी किताब और है नहीं दुनिया में आज तक। और वैराग्य भगवान का सब ऐश्वर्य होते हुए भी ये भौतिक जगत जो है ये भगवान का एक अंश है "एकांशेना स्थितो जगत"। बाकि ये बहुतिक जगत में भगवान नहीं रहता है। भगवान रहते हैं "परस तस्मात् तू भाव 'नयो" अप्राकृत जगत में रहते हैं। जैसे एक मालिक जिसका बहुत फैक्ट्री है, तो इसका मतलब नहीं है की वो मालिक फैक्ट्री में रहता हैं। वो अपना जगह में रहता है। गवर्नर शाशन करता है बाकि वो अपने मकान में रहता है। इसी को तो कृष्ण बताते हैं "भोक्तारं यग्न तपसां सर्व लोक महेश्वरम" जितने लोक हैं प्रति एक-एक ब्रह्माण्ड में अनंत कोटि लोक है "यस्य प्रभा प्रभवतो जगदंड कोटि" भगवान की प्रभा जैसे सूर्य की प्रभा में अनंत कोटि प्लेनेट है भूगोल है, इसी प्रकार भगवान का जो ब्रह्म ज्योति है उसमे अनंत कोटि ब्रह्माण्ड है। उनको निश्वास से अनंत कोटि ब्रह्माण्ड निकलता है।
- यस्यैका-निश्वसित-कालम् अथावलम्ब्य
- जीवन्ति लोम-विलजा जगद्-अंड-नाथः
ये सब शास्त्र का विषय है। भगवान क्या चीज़ है थोड़ा समझना चाहिए। जो अनंत कोटि ब्रह्माण्ड भगवान के निश्वास से निकलता है और श्वास से भीतर में चला जाता है, ये भगवान है। भगवान साधारण जैसा विशेष करके भारत वर्ष में भगवान बहुत चीप हो गया है। सब भगवान का अवतार है। नहीं, वो शास्त्र में उसको भगवान नहीं मानते हैं। वो ऐसा मान लीये दो-चार आदमी बोल दिया भगवान है, ये चीप। असल जो भगवान है वो कृष्ण "कृष्णस तू भगवान स्वयं"। भागवद में विचार किया है सब भगवान का अवतार का लिस्ट दिया गया है। ये भगवान है, वो भगवान है, भगवान का अवतार, आखरी में कंक्लूषन किया, सिद्धांत दिया;
- एते चाँश-कलाः पुंसः
- कृष्णस तु भगवान स्वयं
ये जितने बताये गएँ हैं ये सब अवतार ये भगवान का अंश है, कला है, असल में भगवान है ईश्वर कृष्णा। "कृष्णस तू भगवान स्वयं"। इसलिए इधर बताया गया है की भगवान उवाचा। तो भगवान जो बताते हैं उसमे कोई भूल नहीं होगा, कोई दोष नहीं होगा क्यूंकि भगवान सम्पूर्ण हैं न उसमे भूल नहीं हो सकता। हमलोग हैं असम्पूर्ण। इसलिए हमलोग जो बोलते हैं, जो ज्ञान देते हैं, सब असम्पूर्ण है। और हमलोग क्या ज्ञान दे सकते हैं? ये जो ज्ञान हमलोग संग्रह करते हैं वो इन्द्रिय से और हमारा जो इन्द्रिय है सब इम्पेर्फेक्ट, परफेक्ट नहीं है। इसलिए अपटु इन्द्रिय से जो ज्ञान हमलोग संग्रह करते हैं वो सब पूर्ण नहीं है, सम्पूर्ण है। जैसे हमलोग सूर्य को देखते हैं रोजाना और देखते हैं जैसे थाली, बाकि सूर्य है फोर्टीन हंड्रेड थाउजेंड टाइम्स बिग्गर देन दिस अर्थ। तो हमारा देखने से क्या फायदा। हमलोग कहते हैं देख लेंगे, तुम्हारा देखने का क्या सत्य है क्या, वो सत्य तो है नहीं। थोड़ा दूर देख सकते हो और अँधेरा हो जय तब नहीं देख सकते हो। तो ये जो हम बोलते है की हम देख लेंगे तुम्हारा देखने से क्या फायदा? इसलिए सब इन्द्रिय अपटु हैं, और अपटु इन्द्रिय से जो ज्ञान हमलोग लेते हैं वो ज्ञान असम्पूर्ण है। असम्पूर्ण ज्ञान से हमारा क्या फायदा? इसलिए हमको ज्ञान लेना चाहिए भगवान से। ये जो कृष्णा कॉन्शियसनेस्स मूवमेंट है पेली बात ये है हमलोग सम्पूर्ण व्यक्ति से ज्ञान ले जिसका ज्ञान में कोई भूल नहीं है।
- असंशयं समग्रं माम्
- यथा ज्ञानस्यसि तच चृणु
असंशय, दुसरे से ज्ञान लेने से उसमे संशय होता है डाउट और भगवान से ज्ञान लेने से उसमे कोई संशय का कारण नहीं है, सम्पूर्ण ज्ञान है। जैसे उद्धरण स्वरुप एक बच्चा है, उसके जन्म के पहले उसका पिताजी कहीं चला गया था, फिर आया होगा। तो उनको कौन पिता है ये मालूम करने के लिए कहाँ से ठीक-ठीक समाधान मिल जायेगा। अगर दुनिया में पूछते फिरे की हमारा पिताजी कौन है? हमारा पिताजी कौन है? तो किसी के पास भी इसका ठीक-ठीक समाधान नहीं मिल सकेगा। बाकि अपनी माताजी से पूछे की हमारा पिताजी कौन है तो माताजी बताएगी की बीटा ये तुम्हारा पिता है। असंशयं उसमे कोई संशय नहीं। और कोई बता दे की ये तुम्हारा पिताजी है उसमे संशय हो सकता है। एक अथॉरिटी, जैसा माताजी अथॉरिटी है पिता को समझने के लिए इसी प्रकार ज्ञान लाभ काने के लिए यदि आप सम्पूर्ण ज्ञानी जो है भगवान कृष्ण उनसे आप ज्ञान लें तो वो संशय नहीं है। इसलिए भगवान भगवद-गीता छोड़ दिए यहाँ से दुनिया से चले जाने का पहले ही अर्जुन को उपलक्ष करके ये ज्ञान को छोड़ दिया इसमें भगवान क्या चीज़ है, भगवान से हमरा समपर्क क्या है और दुनिया क्या चीज़ है और मैं किधर से आया है औअर किधर हमको जाना है और क्यों हम दुनिया में इतना दुःख भोग रहे हैं और ये दुःख नाश करने के लिए क्या उपाय है सब चीज़ अच्छी तरह से भगवद-गीता में बताया है। इसलिए भगवान उवाचा। अगर भगवान से हमलोग ज्ञान लेते हैं ये सम्पूर्ण ज्ञान हमको मिलता है। इसलिए भगवान बताया है "असंशयं समग्रं माम्" भगवान को अगर समझ लिया, वेद में कहते हैं "यस्मिन विज्ञाते सर्वम् एवम् विज्ञातम भवति"। यदि आप भगवान को ठीक-ठीक समझ लिया; भगवान को समझना बहुत सरल बात नहीं है, बहुत कठिन है। बाकि भगवान की कृपा से भगवान को समझा जा सकता है। क्यूंकि भगवान बताया है भगवद-गीता में;
- तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम: |
- नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ||
जो भगवान का भक्त होता है, भगवान पाने को बताते हैं, किसको बताते हैं जो भक्त होता है, दुसरे को नहीं बताते हैं, ये भी भगवान बताया है "तेषां सतत युकतानां भजतां प्रीति पूर्वकम" जो सब समय भगवान की सेवा के लिए, भगवान की ख़ुशी के लिए, भगवान को आनंद देने के लिए; साधारण जो भगवान को समझने के लिए कुछ करते है वो भगवान से कुछ अदा करने को चाहते हैं "आर्तो अर्थार्ती जिज्ञासुर" और जो भक्त होते हैं वो खाली भगवान को देने को चाहते हैं। इतना ही फर्क। जो भगवान से लेने चाहते हैं वो शुद्ध भक्त नहीं है। उसको सुकृतिमान कहा गया है।
- चतुर-विधा भजन्ते माम्
- जनाः सु-कृतिनो अर्जुन
अगर भगवान के पास कोई जाता है की भगवान हम बहुत गरीब हैं, हम बहुत दुखी हैं हमको थोड़ा सुखी कीजिये, थोड़ा धन दीजिये, उसको पुण्यवान कहा जाता है। बाकि जो भगवान से कुछ मांगता नहीं, केवल भगवान की सेवा करने के लिए तैयार है उसका नाम है सुकृतिना। जैसा बृन्दावन में गोपी लोग, नन्द महाराज, ये लोग भगवान से कुछ मांगते नहीं, केवल भगवान के सुख के लिए देखते हैं। यशोदा मई देख रहे हैं जो उनकी जो बच्चा है वो ठीक से खाया, ठीक से सोया, सही है की नहीं, भगवान से कुछ मांगता नहीं। नन्द महाराज भी वोही, गोपी लोग भी वोही। भगवान किस तरह से सुखी है, ये शुद्ध भक्त का प्लेटफार्म है। तो ये जो आसक्ति, भगवत सेवा है, किस तरह से ये बढ़ सकती है, ये भगवान खुद बता रहे हैं। आपका ये प्रश्न था की भगवान की सेवा किस तरह से आगे बढ़ती है, ये भगवान खुद बताये हैं। "मैय्या 'सक्ता मनः पार्था योगं युञ्जन" ये योग, इसका नाम है भक्ति योग। वो भक्ति योग का अर्थ क्या होता है भगवान में आसक्ति बढ़ाना चाहिए, इसका नाम भक्ति है। आसक्ति हमलोग का है; आसक्ति एक चीज़ है हमारा भीतर, बाकि किसी का आसक्ति धर्म में है, किसी का दुनिया में है, किसी का अपना देश में है, किसी का अपना समाज में है, और किसी का कुछ है नहीं तो कम-से-कम एक कुत्ता में उसका आसक्ति है, एक बिल्ली में उसका आसक्ति है, आसक्ति तो है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसको आसक्ति नहीं है। बाकि वो आसक्ति फिरा करके जब भगवान में आप लगाइएगा, तो इसमें आपका जीवन संतुष्ट हो जायेगा। इसलिए भगवान कहते हैं "मैय्या 'सक्त मनः"। मन को ऐसी बनाना चाहिए की भगवान में आसक्ति खूब बढे, खूब बढे। "मैय्या 'सक्ता मनः पार्था योगं, ये योग है, "योगं युञ्जन मद आश्रयः" और भगवान का आश्रय से ही ये सम्पूर्ण हो सकेगा। विथाउट टेकिंग शेल्टर, भगवान के आश्रय बिना जैसे भगवद भक्ति भगवान ये भक्ति से ही मालूम हो सक्ता है। तो इसीलिए मद आश्रयः भगवान का आश्रय लेना चाहिए। भगवान का आश्रय लेने के पहले 'मद भक्त्या "भगवद भक्त जो है उनका आश्रय लेना चाहिए। ये जो आसक्ति किस तरह से बढ़ती है ये रूप गोस्वामी विचार किया है की "आदौ श्रद्धा ततः साधु संघः पहले श्रद्धा जैसा आपलोग सुन रहे हैं भगवान का विषय ये सुनते-सुनते श्रद्धा होती है जो अब मैं भी भगवान का भक्त बनूँगा। ये विचार अच्छी तरह से बताया गया है भगवद-गीता में "श्रद्दया अन्ने ही अपासते" केवल श्रवण से ये जो प्रोसेस है,
- श्रवणं कीर्तनं विष्णुः
- स्मरणं पाद-सेवनम्
ये शुरू है श्रद्दया, इसका नाम है श्रद्धया आदौ श्रद्धा पहले श्रद्धा। जिसका श्रद्धा है नहीं वो आगे नहीं बढ़ सकता है "आदौ श्रद्धा तथा साधु संघ" यदि श्रद्धा है तो साधु संघ कीजिये। याने जो लोग भगवद भक्त हैं उनको संघ कीजिये। जैसे आपलोग बिज़नेस करते हैं शेर का बिज़नेस करते हैं, वो शेर बिज़नेस जो करने बाले हैं स्टॉक एक्सचेंज, उसका मेंबर है। इसी प्रकार यदि आप भगवान को चाहते हैं उसका अस्सोसिएशन में मिक्स कीजिये, मेंबर हो जाइये। गेस्ट: (अस्पष्ट) प्रभुपाद: नहीं-नहीं हमलोग ढूंढ़ता है आपलोग के लिए। आपलोग कृपा करके आइये। हमलोग का क्या बिज़नेस है, भगवद भक्ति सबको सीखा रहे हैं। आपको ढूंढना नहीं पड़ेगा। इसलिए तो सारा दुनिया हमलोग घूम रहे हैं की कोई आये तो कोई आता भी नही, कोई सुनता भी नहीं। नहीं तो पहले ये था की कहाँ भगवद भक्त है ढूंढ-ढूंढ के फिरता था। अब तो भगवद भक्त को ढूंढना पड़ता है की कोई भगवद भक्त हो जाये। आईये जी आइये। ये बात है, ये बिज़नेस है। बाकि होना चाहिए जो नियम है "आदौ श्रद्धा ततः साधु-संगो" आदौ कौन है वोई साधु जो भगवद भक्त है वो साधु है। और सब साधु नहीं हैं, सब चोर हैं। ये शास्त्र का सिद्धांत है जैसे भगवान भगवद-गीता में बताये हैं;
- अपि चेत सु-दुराचारो
- भजते माम् अनन्य-भाक्
- साधुर एव स मन्तव्यः
साधु कौन है जो भगवान का भक्त है 'भजते माम् अनन्य-भाक्' और कुछ नहीं जानता है, कृष्ण को छोड़ करके और कुछ नहीं जानता है। वो साधु है। साधु ये भगवा ड्रेस पहनने से साधु नहीं होता है। "स महात्मा सु दुर्लभ"। सब भगवान बताये हैं कौन साधु है, कौन महात्मा है।
- वासुदेवः सर्वम् इति
- स महात्मा सु-दुर्लभाः
जो केवल भगवान कृष्ण को ही जानते हैं सब कुछ, ऐसे महात्मा मिलना मुश्किल है।
- महात्मनस तु माम पार्थ
- दैवीं प्रकृतिं आश्रितः
- भजंती अनन्य मनसो
"भजंति अनन्य मनसो", ये महात्मा का लक्षण है। जो केवल कृष्ण भजन करते हैं। तो साधु संघ का अर्थ होता है जो महात्मा, साधु केवल भगवद भजन करता है और कुछ नहीं जानता है।
- तेषां सतत-युक्तानां
- भजताम् प्रीति-पूर्वकम्
अनन्य भाव से, अनन्य भक्ति का अर्थ होता है "अन्याभिलाषिता-शून्यम्" भगवान से कुछ अदा कर लेंगे ये बात नहीं शून्यम्,
- अन्याभिलाषिता-शून्यम्
- ज्ञान-कर्मादि-अनावृतम
ज्ञान से चाहते हैं की भगवान से एक हो जाएँ, मर्ज ईंटो दी एग्जिस्टेंस ऑफ़ दी लार्ड, ज्ञान है, वो भी नहीं और कर्म का है हम स्वर्ग लोक में जायेंगे और आगे जाके हमारा सुख-समृद्धि, ये ही दुनिया में हमारा खूब सुख-समृद्धि बन गया। वो नहीं।
- अन्याभिलाषिता-शून्यम्
- ज्ञान-कर्मादि-अनावृत्तम्
- आनुकुल्येन कृष्णानु-
- शीलनं भक्तिर उत्तम
केवल भगवान किस तरह से सुखी होंगे, भगवान क्या चाहते हैं, उसको ही समाधान करने के लिए, ये विचार से जो है वो भक्त उत्तम है। तो वो उत्तम भक्ति, भगवद भाव बढ़ने के लिए शास्त्र में बताया है, पहले तो श्रद्धा होना चाहिए और उसके बाद साधु संघ;
- आदौ श्रद्धा ततः साधु-
- संगो 'था भजन-क्रिया
- ततो 'नार्थ-निवृत्ति: स्यात्
नहीं साधु संघ के बाद भजन-क्रिया। साधु-संघ जैसा की ये लड़के लोग जो हमारा पास है पहले सुनता है, सुनते-सुनते-सुनते कोई आगे बढ़ा है महाराज हमको आप शिष्य बनाइये। शिष्य बनाने से क्या, गुरु क्या सीखा रहा है भजन क्रिया, किस तरह से भजन करना है वो सीखा रहा है। ये साधु संघ का फल होता है भजन क्रिया। और नहीं तो जन्म भर साधु संघ किया, जन्म भर सुना और कभी भजन किया नहीं, भजन क्या है सीखा नहीं वो साधु संघ नहीं। वो अस्सोसिएशन, वोही एग्जाम्पल। अब आप स्टॉक एक्सचेंज में जाइये, बिज़नेस कीजिये, कुछ लाभ कीजिये। अगर कुछ लाभ नहीं किया तो केवल स्टॉक एक्सचेंज में जाने से क्या लाभ। वो साधु संघ, वास्तविक साधु संघ करने से उसका फल होता है भजन किर्या और भजन जब शुरू करेगा तो 'अनर्थ निवृत्ति स्यात'। जितना अनर्थ है, अनर्थ क्या जो चीज़ हमको नहीं चाहिए, कोई जरूरत है नहीं वो सब निवृत्ति। ये अनर्थ तो और होता है पाप कार्य में वो निवृत्ति। जो भगवद भजन करेगा उसका पाप कहाँ से आएगा। तो इसलिए उद्धरण के तरफ ये हमारा जितना शिष्य लोग है चार चीज़ छोड़ दिया है। क्या चीज़ अवैध स्त्री संघ। अपनी विवाहित स्त्री छोड़ करके कोई स्त्री से संपर्क नहीं, ये महापाप है। ये तो भगवद भजन का नहीं चाणक्य पंडित जो निति वाकय बताया है उसमे कहा है "मातृवत परदारेषु। पंडित कौन होता है? पंडित खाली संस्कृत दो-चार बात बोलने से, ये इंग्लिश बोलने से पंडित नहीं होता है। उसका गुण क्या है देखना चाहिए। ये पंडित, चाणक्य पंडित बताया है पंडित किस को कहा जाता है "मातृवत परदारेषु" जो दुसरे स्त्री को, अपना स्त्री छोड़ करके और सब स्त्री को मातृवत माँ के सामान देखता है। "मातृवत परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ट्रवत" और दुसरे का जो धन है उसको देखता है रास्ता का कूड़ा, छूता भी नहीं है और "आत्म सर्व भूतेषु" और अपने के समान अपना सुख-दुःख जैसा है दुसरे का भी समझता है। हमारा गला में छूरी देने से कितना दुःख होता है दुसरे को गला छूरी क्यों दें। उनको भी दुःख होगा। ये जो समझता है; ये तीन चीज़ जो लाभ किया है;
- मातृवत् परदारेषु,
- परद्रव्येषु लोष्ठवत्।
- आत्मवत् सर्वभूतेषु,
- यः पश्यति सः पण्डितः
वो पंडित है। तो अनर्थ का ये जो इतना हमलोग सीखते हैं किसी के गला में छूरी देने के लिए और दुसरे का औरत को फसाने के लिए, ये सब अनर्थ है, ये सब महा पाप है। इसलिए भजन क्रिया, भगवद भजन करने से ये सब अनर्थ है सब मिट जायेगा। "आदौ श्रद्धा तथा साधु संघ" ये उनका पहचान है की जो वास्तविक भगवद भजन कर रहा है की नहीं। ये थेओरटिकल नहीं है। प्रैक्टिकल। ये सब गुण अगर उसमे आ जाये तो मालूम होता है की वो भगवद भजन कर रहा है।
- आदौ श्रद्धा ततः साधु-
- संगो 'था भजन-क्रिया
- ततो 'नर्थ-निवृत्ति: स्यात्
- ततो निष्ठा रुचिस ततः
ये अनर्थ निवृत्ति होने से, ये पाप का जैसे निवृत्ति हो जाने से फिर उनकी आसक्ति, ततः आसक्ति रूचि, भगवान खुद भी बताये हैं भगवद-गीता में की;
- येषां त्व अंत-गतं पापं
- जनानां पुण्य-कर्मणाम्
- ते द्वन्द्व-मोह-निर्मुक्ता
- भजन्ते माम् दृढ़-व्रतः
भगवद भजन कौन कर सकता है? "येषां त्व अंत-गतं पापं" जिसका पाप बिलकुल नष्ट हो गया है। "येषां त्व अंत-गतं पापं जनानां पुण्य-कर्मणाम्" केवल पुण्य कार्य करते हैं, इस प्रकार जो व्यक्ति है वो भगवद-भक्त बन सकता है। तो व् भी बड़ा मुश्किल नहीं है। यदि वास्तविक हम भगवद भजन करने को चाहता है, भगवान कहते हैं;
- सर्व-धर्मान् परित्यज्य
- माम एकं शरणं व्रज
- अहं त्वा सर्व-पापेभ्यो
- मोक्षयिष्यामि मा शुचः
यदि वास्तविक कोई भगवद भजन करता है उसको पाप छु भी नहीं सकता है।
- यस्यास्ति भक्तिर भगवती अकिन्चना
- सर्वैर गुणैस तत्र समासते सुराः
ये सब विचार है। तो मैया 'सक्त मनः" ये आसक्ति बढ़ाने के लिए ये भगवान जैसे बताते हैं भगवद-गीता में उसको पालन कीजिये और आस्ते-आस्ते आसक्ति हो जाएगी। और आसक्ति होने से ही भगवत प्रेम। आसक्ति कैसे होता है? जैसे कोई लड़का-लड़की है आसक्ति जब बढ़ती है तो प्रेम होता है। तो भागवत प्रेम जीवन में लाभ करना ही सबसे उच्च कोटि का लाभ है। चैतन्य महाप्रभु का विचार "प्रेमा पुमारथो महान" धर्म अर्थ काम मोक्ष नहीं, भगवत प्रेम। दाट इस दी फर्स्ट क्लास रिलिजन सिस्टम।
- स वै पुंसाम परो धर्मो
- यतो भक्तिर अधोक्षजे
वो धर्म, संप्रदाय जिसको भगवत प्रेम बढ़ रहा है दाट इस फर्स्ट क्लास। "स वै पुंसाम परो" परो मीन्स उत्कृष्ट और ट्रान्सेंडैंटल, अप्राकृ। प्राकृत भगवद भक्ति वो टूट जा सकता है बाकि जो अप्राकृत भगवद भक्ति जो है वो टूटने वाला नहीं है। :स वै पुंसाम परो धर्मो
- यतो भक्तिर अधोक्षजे
- अहैतुकी अप्रतिहता
- ययात्मा सुप्रसीदति
ये आत्म को सुप्रसन्न करने को चाहते हैं तो वोही धर्म को याजन कीजिये जिसके जरिये से भगवद भक्ति लाभ हो। ये सब शास्त्र का विचार है और भगवान खुद बता रहे हैं। एक-एक शब्द अगर विचार करके ग्रहण करेंगे और उसको तत जोशनात, उसको जीवन में वास्तविक अपनाएंगे तो आस्ते-आस्ते भगवद भक्ति हो जाएगी और पहली बात है जो श्रद्धा जो इस जीवन में; जैसे हमलोग प्रचार करते हैं की भगवद भक्ति लाभ करना एकमात्र उद्देश्य है। इसमें जितना जिसका श्रद्धा है, वो आगे बढ़ सकता है आदौ श्रद्धा, तो इसलिए इसका नाम योग मदाश्रय पहले आश्रय करना। भगवान कहते हैं
:सर्व-धर्मान् परित्यज्य
- माम एकं शरणं व्रज
तो जो ये भगवान का आश्रय ग्रहण कर लिया। भगवान इतना दिन तो आपको भूला था, अब आपका चरण में मैं आश्रय ले रहा हूँ, आप कृपा करके अपना आश्रय दीजिये। ये भगवान का आश्रय देने के लिए दौड़ कर इधर आते हैं जो "सर्व-धर्मान् परित्यज्य माम एकं शरणं व्रज" ये आदमी लेता नहीं, भगवान का बात सुनता नहीं, भगवान बिचारे क्या करेंगे। मुश्किल है।
- मय्य आसक्त-मनः पार्थ
- योगं युञ्जन मद-आश्रयः
भगवान का आश्रय लेके जो भक्ति योग जो प्रैक्टिस करेगा जीवन में सदा उसके लिए भगवान का आसक्ति बढ़ती जाएगी और भगवान का आसक्ति होने से जीवन सफल हो जाएगी। धन्यवाद, थैंक यू वैरी मच। हरे कृष्णा
- 1973 - Lectures
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- BG Lectures - Chapter 07
- Lectures and Conversations - Hindi
- Lectures and Conversations - Hindi to be Translated
- 1973 - New Audio - Released in May 2015
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